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श्रीरामचरितमानस (अरण्यकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

Ram Charit Manas Arthat Tulsi Ramayan Aranyakand

श्रीगणेशाय नमः

श्रीजानकीवल्लभो विजयते

श्रीरामचरितमानस

तृतीय सोपान
(अरण्यकाण्ड)

श्लोक


मूलं धर्मतरोविवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं
वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्।
मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं
वन्दे ब्रह्मकुलं कलङ्कशमनं श्रीरामभूपप्रियम्॥१॥

धर्मरूपी वृक्षके मूल, विवेकरूपी समुद्रको आनन्द देनेवाले पूर्णचन्द्र, वैराग्यरूपी कमलके [विकसित करनेवाले] सूर्य, पापरूपी घोर अन्धकारको निश्चय ही मिटानेवाले, तीनों तापोंको हरनेवाले, मोहरूपी बादलोंके समूहको छिन्न-भिन्न करनेकी विधि (क्रिया) में आकाशसे उत्पन्न पवनस्वरूप, ब्रह्माजीके वंशज (आत्मज) तथा कलङ्कनाशक महाराज श्रीरामचन्द्रजीके प्रिय श्रीशङ्करजीकी मैं वन्दना करता हूँ॥१॥

सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं पाणौ
बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम्।
राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं
सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे॥२॥


जिनका शरीर जलयुक्त मेघोंके समान सुन्दर (श्यामवर्ण) एवं आनन्दघन है, जो सुन्दर [वल्कलका] पीतवस्त्र धारण किये हैं, जिनके हाथोंमें बाण और धनुष हैं, कमर उत्तम तरकस के भारसे सुशोभित है, कमलके समान विशाल नेत्र हैं और मस्तकपर जटाजूट धारण किये हैं, उन अत्यन्त शोभायमान श्रीसीताजी और लक्ष्मणजीसहित मार्गमें चलते हुए आनन्द देनेवाले श्रीरामचन्द्रजीको मैं भजता हूँ॥२॥


सो०- उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति।
पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति॥


हे पार्वती! श्रीरामजीके गुण गूढ़ हैं, पण्डित और मुनि उन्हें समझकर वैराग्य प्राप्त करते हैं। परन्तु जो भगवान्से विमुख हैं और जिनका धर्ममें प्रेम नहीं है, वे महामूढ़ [उन्हें सुनकर] मोहको प्राप्त होते हैं।

  1. दण्डकारण्य निवास
  2. ईश्वर और जीव का भेद
  3. सूर्पणखा प्रकरण
  4. खर-दूषण वध
  5. भगवान् राम का सीताजी को अग्निप्रवेश का निर्देश
  6. स्वर्ण मृग बने मारीच की माया
  7. सीता हरण
  8. सीताजी के न मिलने पर भगवान् श्रीराम की विषाद लीला
  9. जटायु देह त्याग के समय भगवान् राम के सगुण और निर्गुण रूप की स्तुति
  10. कबंध वध तथा शबरी से नवधा भक्ति का प्रसंग
  11. नारद मुनि द्वारा भगवान् श्रीराम से तात्विक प्रश्न

पुर नर भरत प्रीति मैं गाई ।
मति अनुरूप अनूप सुहाई॥
अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन ।
करत जे बन सुर नर मुनि भावन॥


पुरवासियों के और भरतजी के अनुपम और सुन्दर प्रेम का मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार गान किया। अब देवता, मनुष्य और मुनियों के मन को भानेवाले प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके वे अत्यन्त पवित्र चरित्र सुनो, जिन्हें वे वनमें कर रहे हैं ॥१॥

एक बार चुनि कुसुम सुहाए ।
निज कर भूषन राम बनाए।
सीतहि पहिराए प्रभु सादर ।
बैठे फटिक सिला पर सुंदर ।।


एक बार सुन्दर फूल चुनकर श्रीरामजीने अपने हाथोंसे भाँति-भाँतिके गहने बनाये और सुन्दर स्फटिकशिलापर बैठे हुए प्रभुने आदरके साथ वे गहने श्रीसीताजीको पहनाये ॥२॥

सुरपति सुत धरि बायस बेषा ।
सठ चाहत रघुपति बल देखा।
जिमि पिपीलिका सागर थाहा।
महा मंदमति पावन चाहा।।

देवराज इन्द्रका मूर्ख पुत्र जयन्त कौएका रूप धरकर श्रीरघुनाथजीका बल देखना चाहता है। जैसे महान् मन्दबुद्धि चींटी समुद्रका थाह पाना चाहती हो॥३॥

सीता चरन चोंच हति भागा।
मूढ़ मंदमति कारन कागा ।।
चला रुधिर रघुनायक जाना।
सींक धनुष सायक संधाना॥


वह मूढ़, मन्दबुद्धि कारणसे (भगवान् के बल की परीक्षा करनेके लिये) बना हुआ कौआ सीताजी के चरणोंमें चोंच मारकर भागा। जब रक्त बह चला, तब श्रीरघुनाथजीने जाना और धनुषपर सींक (सरकंडे)का बाण सन्धान किया॥४॥

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